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Monday 25 January 2016

किसी तरह की परीक्षा दे रहे हैं? तो इसे जरूर पढ़िए

यह करोड़ों युवाओं की तूफान से जूझने की तैयारियों का समय है। दिन-रात। आंखों में सपने थे। अब जलन है। दिल में हौसला था। अब अनजानी सी धड़कन है। दिमाग में वो लाखों वाक्य थे जो साल भर पढ़े थे। अब तनाव है। 
परीक्षा तूफान है। जितनी बड़ी परीक्षा, उतना बड़ा भय। कैसा भय? कहां से आया यह डर? क्यों आया? या कि पैदा किया गया/जा रहा है?
 
जब से ‘परीक्षा’ लेना आरंभ हुआ होगा, उसका डर भी उतना ही पुराना है। आचार्यो ने पैदा किया था भय। उद्देश्य पवित्र था। वे समझते थे भयवश, विद्यार्थी मनोयोग से अभ्यास करेंगे, सफल होंगे।  
 
आपकी रुचि किसमें है? रुझान। आपको भयभीत वही बात, वही विषय, वही परीक्षण करेगा - जिसमें आपका मन ही नहीं लगता।   
 
हमारी स्थिति तो विचित्र है। गुलाम हैं हम। जैसा आदेश मिलेगा- वैसा करना पड़ेगा। सारा राष्ट्र आईआईटी दे रहा है/चाहता है - तो हमें भी जुटना होगा। सारे बड़े पद मैनेजमेंट के उच्च संस्थानों से सफल होकर निकल रहे नौजवानों को मिल रहे हैं। तो हमें भी वे परीक्षाएं देनी होंगी। मेडिकल की एक ही परीक्षा हो गई है। मुकाबला अत्यधिक कड़ा हो चुका है। करना पड़ेगा। 
 
सारी प्रतियोगी परीक्षाएं, अर्थात देनी पड़ेंगी। बस यहीं ग़लती हो रही है। ‘पड़ेगी’ में विवशता की बू आती है। देंगे में स्वेच्छा की खुशबू। अब स्वेच्छा क्यों कर कोई करने देगा? घर में ही कौन मानेगा? ‘कोई’ अपनी जगह है- घर में माने न माने यह हमेशा सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। क्योंकि परिवार ही तो हमारा अच्छा-बुरा वास्तव में सोचता है। तय करता है। वे बड़े हैं। उम्र। अनुभव। अभ्यास। 
 
किन्तु स्कूल-कॉलेज की बातों से तो डर संभवत: स्वाभाविक है। क्लास टीचर/प्रोफेसर/कोच जो भय पैदा करते हैं - उनके अपने कारण हैं। पता हैं। घर वाले क्यों हमारी बात, हमारी रुचि नहीं देखेंगे। उनके पास तो बस हम और हमारी प्रगति, हमारी प्रसन्नता। यही कारण हैं।
 
भविष्य का भय। आने वाले कल में न जाने क्या हो जाए? असुरक्षा। असमंजस। अन्याय। अराजकता। पापा ने ढेरों उतार-चढ़ाव देखे हैं। उतार ही अधिक थे/हैं। मां तो बस जानती ही तीन बातें हैं: जिम्मेदारी। जिम्मेदारी। और जिम्मेदारी। हमेशा संकट। निभाओ जिम्मेदारी। हमेशा भेदभाव। उठाओ जिम्मेदारी। हमेशा बाकी सभी का आगे बढ़ जाना। समझो जिम्मेदारी।
 
वास्तव में तो माता-पिता दे रहे हैं कठोर परीक्षाएं। हमारी परीक्षा तो बहुत छोटी है। फिर यह तो एक तयशुदा तारीख को समाप्त भी हो जाएगी। उनकी परीक्षा का तो कोई अंत भी नहीं है। वे क्यों डराने लगे। स्वयं भयभीत होते रहते हैं। हमारे लिए। 
 
 परीक्षा और विफलता का डर खत्म नहीं हो सकता। असंभव है। किन्तु खत्म करना ही होगा। हमारी योग्यता (कैपेबिलिटी), क्षमता (कैपेसिटी) और दक्षता (परफैक्शन) अपनी जगह है। हम सबमें है। किन्तु जब तक हम संघर्षरत हैं - तब तक हम विफल नहीं हैं। चाहे बड़े भाई साहबों को विफलता दिख रही हो। बल्ब के जनक के रूप में प्रसिद्ध थॉमस अल्वा एडिसन ने गजब की बात बताई थी: ‘जीवन के सर्वाधिक बड़े विफल लोग वे हैं जिन्होंने यह जाने बगैर ही हार मान ली कि वास्तव में वे सफलता के कितने करीब थे। 
 
परीक्षा कोई भी हो - आपसे बड़ी नहीं है। विश्वकवि गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर के ‘व्हेयर माइंड इज विदाउट फियर, एंड हेड इज हेल्ड हाई’ का आशय संभवत: यही है। संसार में सर्वाधिक घिनौना भाव है: भय। किन्तु भय का उल्टा निर्भय नहीं है। भय का विपरीत है: भरोसा। स्वयं पर भरोसा रखिए। सारी परीक्षाएं, सारी विफलताएं, सारे भय, भयंकर तरह से भयभीत होते दिखेंगे।

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